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हिंदी कहानियां - भाग 191

वरदान का भय


वरदान का भय भगवान श्रीकृष्ण द्वारिकापुरी के सिंहासन पर विराजमान थे। अनेक राजा उनकी कृपा पाने के लिए उन्हें घेरे बैठे थे। श्रीकृष्ण की कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। उनकी चतुराई और पराक्रम के आगे सभी राजा हार मान चुके थे। बचा था, बस दैत्य राज शकुनि। दैत्यराज शकुनि बहुत ही शक्तिशाली राजा था। देवता भी उससे थर्राते थे। उसने शिव की तपस्या की थी। उनसे अजय होने का वर पाया था। शिवजी ने उसे वरदान दिया था कि शत्रु द्वारा मारे जाने पर जैसे ही उसका मृत शरीर पृथ्वी पर गिरेगा, वह पुन: जीवित हो उठेगा। आकाश में मृत्यु होने पर हवा के स्पर्श से भी वह जीवित हो उठेगा। शकुनि कई युद्ध में मारा गया, मगर हर बार और ज्यादा शक्तिशाली होकर वह जीवित हुआ। भला ऐसा असुर  भगवान कृष्ण की राजसत्ता को कैसे सहन करता?  उसने द्वारिकापुरी पर आक्रमण कर दिया। उसके बेटे-पोतों की संख्या कम नहीं थी। सभी वीर थे। वे सेना लेकर यादव कुल पर टूट पड़े। मगर वे यादवों के सामने टिक न सके। एक-एक करके सारे मारे गए। यह देखकर शकुनि दैत्य तिलमिला गया। उसका क्रोध दावानल जैसा भयंकर था। उसने नए सिरे से सेना को तैयार किया। निर्णय लिया कि वह स्वयं जाकर यादव कुल का खात्मा करेगा। श्रीकृष्ण को खबर मिली कि इस बार दैत्यराज शकुनि स्वयं युद्ध के लिए आ रहा है। वह विचार में डूब गए। यादवों के सेनापति ने कहा, “महाराज, आप चिंता न करें। हमारे हाथों से वह भी न बच पाएगा।” श्रीकृष्ण ने कहा, “तुम उसकी शक्तियों को नहीं जानते। वह शिवजी से अजेय होने का वरदान पाए हुए है।” बताते हुए श्रीकृष्ण ने वरदान की पूरी बात बता दी। सुनकर सभी यादव चिंता में डूब गए। “मगर मैंने भी उपाय सोच लिया है। मैं स्वयं उससे युद्ध करूंगा। उसी उपाय से वह मारा जा सकेगा।” श्रीकृष्ण बोले। “कौन सा उपाय भगवन?” सेनापतियों ने पूछा। श्रीकृष्ण बताने लगे, “वरदान देकर शिवजी ने कहा था, दैत्यराज, सृष्टि में कोई भी सदा जीवित नहीं रह सकता। परिवर्तन सृष्टि का मूल है। तुम ही बताओ, तुम अपने प्राणों की सुरक्षा कैसे चाहते हो?” शकुनि ने कहा, “आप ही बताएं।” शिव बोले, “यह तोता लो। इसी में तुम्हारे प्राण हैं। सागर में तरंगों के बीच एक द्वीप है। तुम वहीं इसे रखो। इसकी रक्षा शंखचूड़ नामक सात फनों वाला भयंकर सर्प करेगा।” यह सुनकर शकुनि प्रसन्न हो गया। वह जानता था, शंखचूड़ जैसे विषधर के रहते कोई तोते को पा नहीं सकेगा।” “अब क्या होगा?” यादवों ने पूछा। “होगा क्या! शकुनि को मारना है, तो वह तोता लाना होगा। यह काम गरुड़ ही कर सकते हैं। मैं उन्हें बुलाता हूं।” कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़ को याद किया। अपने विशाल पंखों के जोर से आंधी सी उठाते हुए गरुड़ तुरंत उपस्थित हो गया। गरुड़ ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। फिर बुलाने का कारण पूछा। श्रीकृष्ण ने उस द्वीप का पता बताते हुए कहा, “तुम शंखचूड़ को डराकर किसी तरह तोते को ले आओ। याद रहे, शंखचूड़ भगवान शंकर का सेवक है। उसे मारना नहीं। इस बीच मैं शकुनि से युद्ध करूंगा।” जाते हुए गरुड़ के कान में श्रीकृष्ण ने यह भी बता दिया कि तोते को कहां लाना है। श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर गरुड़ तेज गति से द्वीप की ओर उड़ चला। इसी बीच शकुनि सेना लेकर द्ववारिकापुरी की ओर जाने के लिए तैयार हो गया।  उसकी पत्नी मदालसा को अपशकुन होने लगे। उसने पति से कहा, “सुना है, श्रीकृष्ण स्वयं आपसे युद्ध करने आ रहे हैं। उनसे लड़ना आपके लिए ठीक नहीं। आप उनसे संधि कर लें।” शकुनि ने क्रोध से कहा, “तुम क्या नहीं जानतीं, यादव कुल ने मेरे वंश का संहार किया है। मैं उनसे बदला लेकर ही रहूंगा। तुम जानती हो, शिव के वरदान से मेरे प्राण जिस तोते में हैं, उसे कोई खोज नहीं पाएगा। फिर कृष्ण मेरा क्या बिगाड़ लेगा?” कहते हुए शकुनि युद्ध के लिए चल पड़ा। गरुड़ ने द्वीप पर पहुंचकर शंखचूड़ सर्प पर अपनी चोंच से प्रहार किया। शंखचूड़ अचानक हुए इस हमले से घबरा गया। वह जान बचाकर भागा। तभी मौका पाकर गरुड़ ने तोते के पिंजरे को चोंच में दबाया और आकाश में उड़ चला। उसने तोते को पिंजरे सहित समुद्र में डाल दिया। युद्ध क्षेत्र में शकुनि और कृष्ण में भयंकर युद्ध छिड़ गया। श्रीकृष्ण ने एक शक्तिशाली बाण से दैत्य का सिर धड़ से अलग कर दिया। शकुनि के मस्तक ने जैसे ही धरती का स्पर्श किया, वह जीवित हो उठा। उसने श्रीकृष्ण पर अपनी गदा चलाई, मगर उसका वार बचाते हुए श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य बाण का प्रयोग किया। इस बाण ने शकुनि के मस्तक को पृथ्वी की जगह दूर समुद्र की लहरों में फेंक दिया। तोता भी समुद्र में डूब चुका था। तोते के मरते ही शकुनि का भी अंत हो गया। यह देखकर सब भगवान कृष्ण की जय-जयकार कर उठे।     (वायु पुराण) 

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